फिल्मी नग़मे भी ऐसे जैसे हमारे ख़ून में ,हमारे डीएनए में ही रच बस जाते हैं....और जब भी हम इन को याद करते हैं तो हमें ज़िंदगी के वे लम्हे याद आ जाते हैं जब हमने पहली बार वे गीत सुने थे ... मुझे भी बचपन में सुने तो दो तीन गीत जो सब से पहले सुने होंगे या जिन की याद मेरे ज़ेहन में है, उनमें से एक गीत तो यही है परदे में रहने दो परदा न उठाओ....परदा जो उठ गया तो भेद खुल जाएगा। हसरत जयपुरी ने लिखा था इस गीत को, यह मुझे चंद रोज़ पहले ही पता चला। आज मैंने देखा यह फिल्म शिकार १९६८ में आई थी...मैं पांच साल का रहा हूंगा ...मुझे अच्छे से याद है हम लोग अमृतसर में रहते थे ...रेडियो पर ऊंची ऊंची आवाज़ में यह गीत बज रहा है ...शायद सामने वाले घर में ..लेकिन आवाज़ मुझे अच्छे से आ रही है ...लेकिन आप पूछेंगे कि तुम उस वक़्त कर क्या रहे थे ...तो सुनिए जनाब, उस समय मैं घर की एक नाली पर बैठा हाल ही में बने "खुले में शौच निषेध" कानून का उल्लंघन कर रहा हूं ...मस्त हो कर गीत सुन रहा हूं और साथ ही यह सोच कर झूम रहा हूं कि पापा कह कर गये हैं कि दफ़्तर से आने पर जब वह शाम को बाज़ार जाएँगे तो मुझे भी साथ